मिथिलांचल जहां सीता माता का जन्मस्थान है। वहां का सबसे महत्वपूर्ण पर्व मधुश्रावनी होता है। यह पति की लंबी आयु और उसके सुख शांति के लिए नवविवाहिता करती है। इस व्रत में महिलाएं भगवान शिव और पार्वती माता की विशेष पूजा अर्चना करते हैं। इसमें कथाएं होती है 14 खंड की कथा जिसमें शिव-पार्वती, शिवविवाह, बिहुला कथा, गंगा कथा, गौरी तपस्या, मैना पंचमी, मंगला गौरी, पृथ्वी जन्म जैसी कथाएं शामिल हैं।
यह नाग पंचमी से शुरू होकर 13 दिनों तक चलती है। यह मायके में ही पूजा किया जाता है। इस कथा में शिव-पार्वती से पति-पत्नी में प्यार, रुठना- मनाना, प्यार, मनुहार ये सब बातें सुनकर अपने जीवन में भी उन बातों को उतारते हैं।
मधुश्रावनी नहाय खाय से व्रत शुरू होता है। फिर 13 दिनों तक पूजा होती है। इसमें पंडित जी रखने का कोई विधान नहीं है, गांव की बुजुर्ग महिलाएं ही कथा पूजा करती है। माता पार्वती भगवान शिव को जन्मों जन्मों तक पाने के लिए ये व्रत किया था इसलिए इस पुजा में उनकी कथाएं प्रचलित हैं।
इस पूजा के दौरान महिलाएं नमक नहीं खाती है।मायके का भोजन नहीं करती, ससुराल से फल या खाना, खाने का सामान आता वही खाती है। पूजा में नदी के किनारे की मिट्टी का नाग नागिन, हाथी, शिव पार्वती जी की मूर्ति बनाती है और उस पर फूल, मिठाई, फल, बेलपत्र चढ़ाते हैं। रोज ताजा फूल, फल, बेलपत्र चढ़ाने चाहिए। बासी कुछ नहीं होता है।
नाग को दूध और लावा चढ़ाते हैं। विषहरी स्थान जाया जाता है। पूजा के सातवें, आठवें और नौवें दिन खीड़, घोरजौड़ी( मट्ठे और चावल का खीर) और रसगुल्ले या गुल गुल्ले का भोग लगता है। गांव के बड़े बुढ़े रोज शाम में आरती, कोहवर, सावन का झुला, सुहागगीत गाकर भगवान शिव को प्रसन्न करती है।
पूजा के अंतिम दिन 14 बर्तनों में दही और फल से सजा कर, पूजा कर 14 सुहागिनों में बांटा जाता है। फिर भाई आकर वरती को हाथ पकड़ उठाता है, बदले में बहन उसको फल और प्रसाद देती है। इस तरह पूजा का समापन हो जाता है। आज भी मिथिलांचल में यह बहुत हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
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