जिउतिया जीवित्पुत्रिका व्रत यह एक मां अपने बच्चों की लंबी उम्र के लिए करती है। यह व्रत बहुत ही कठीन माना जाता है जिसमें मां निर्जला उपवास करती है। यह व्रत दर्शाता है कि एक औरत अपने पति से भी ज्यादा अपने बच्चों को प्यार करती है, तीज व्रत अपने पति के लिए करती है जिसमें पीना, सर्बत या फलाहार भी कर लेती है लेकिन जीतिया में आजतक किसी औरत को पानी से कुल्ला करते भी नहीं सुने होंगे।यह बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और झारखंड, नेपाल में ज्यादातर महिलाएं करती है।
कहा जाता है मां दुर्गा का जीभ इसी जिउतिया जीवित्पुत्रिका व्रत के दिन मूर्ति में कलाकार देता है। माता से अपने बच्चों की लंबी उम्र के लिए यह व्रत कर वरदान मांगती है। जितिया पर्व को लेकर हमेशा संशय बनी रहती है कभी 24 घंटे का तो कभी 36 घंटे का हो जाता है लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि कोई भी तिथि बस 24 घंटे का होता है तो 12 घंटे अतिरिक्त क्यों उपवास। पहले के जमाने में खान पान का असर था सब स्वस्थ रहती थी अब एक दिन के उपवास में जान जाने लगता।और भगवान कभी नहीं चाहते हैं कि जान देकर व्रत किया जाय.... वैसे सबकी अपनी-अपनी सोच है ये स्वयं मेरा मानना है आप अपने हिसाब से सोचें करें...
जिउतिया जीवित्पुत्रिका व्रत आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को होता है। सप्तमी के दिन नहाय-खाय,अष्टमी तिथि को उपवास और नवमी को पारण होता है।
जिउतिया जीवित्पुत्रिका व्रत कब है और शुभ मुहूर्त....
अष्टमी तिथि आरंभ - 28 सितंबर मंगलवार शाम 6.16 मिनट और अष्टमी तिथि समाप्त 29 सितंबर बुधवार रात 8.29में समाप्त हो रहा। 28 नहाय खाय, 29 उपवास और 30 को पारण...
यहां दो मत मानने वाले लोग हैं एक जो सुर्योदय सिद्धांत को मानते हैं दुसरे चंद्रोदय सिद्धांत। दोनो अपने जगह सही है। सूर्योदय सिद्धांत के अनुसार हम कोई व्रत सुर्योदय से सूर्योदय रखते हैं।
महाभारत काल से कैसे जुड़ा है ये जीवित्पुत्रिका व्रत...
जिउतिया जीवित्पुत्रिका व्रत के बारे में महाभारत में भी बताया गया है। कहा जाता है कि जब अर्जुन के बेटे अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को मारने के लिए अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। ब्रह्मास्त्र को कोई रोक नहीं सकता ऐसे में भगवान श्रीकृष्ण ने अपना सारा पुण्यफल उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को देकर बच्चे की जान बचाई। जिससे बच्चे की जान बच गई तब से ये व्रत जीवित्पुत्रिका व्रत नाम से जाना जाता।
जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा....
नर्मदा नदी के तट पर कंचनवटी नाम का एक शहर था। नदी किनारे एक पाकड़ पेड़ के कोटर में चिल्ह रहता था उसी पेड़ के नीचे खोह बना सियारिन रहती थी। दोनों में मित्रता भी थी। जीतिया पर्व होने वाला था दोनों ने विचार किया और व्रत रखा। दोनो ने पुरे नियम निष्ठा से व्रत रखा।
उसी दिन उस शहर के एक आदमी की मृत्यु हो गई। जिसका दाह संस्कार उसी नदी के तट पर हुआ। सियार के नाक में मूर्दा जलने की गंध तैरने लगी। भूख से तो हाल खराब था ही ऊपर से मुर्दा का गंध सियार अपने आप को रोक ना सकी और व्रत छोड़ खा ली। चिल्ह पुरे नियम के साथ व्रत पालन कर दुसरे दिन पारण की।
कुछ दिन बाद दोनों की मृत्यु हुई। दोनों एक ब्राह्मण के घर पैदा हुई। पिता का नाम भास्कर, चिल्ह बड़ी बहन शीलवती हुई और उसका विवाह बुद्धिसेन से हुआ। सियारन छोटी बहन कपुरावती जिसकी शादी मलयकेतु के साथ हुई।शीलवती के भगवान जीतवाहंन की कृपा से 7 बेटे हुए और कपुरावती के बच्चे होते और मर जाते।
शीलवती के सातों बच्चे बड़े हुए और सभी काम करने लगे। ये देख कपुरावती को जलन होने लगा। एक दिन उसने गुस्से में सातों का सर काट थाल में सजा लाल कपड़े से ढककर भेज दिया। शीलवती के सामने जैसे ही थाल पहुंचा सभी मिट्टी के सर हो गए। इधर कपुरावती को अभी तक शीलवती के यहां से रोने की कोई आवाज ना आई।
वो हैरानी से बढ़ते हुए शीलवती के घर पहुंचे तो सातों बेटे खेल रहे, कपुरावती को यह देख होश आया। भगवान जीवितवाहन नेउसके सातों पुत्रों को जिंदा कर दिया था। शीलवती को सारी बात बता मांफी मांगी। दोनों को अपना पिछला जन्म याद आ गया था। पाकड़ के पेड़ के पास जा दोनों ने भगवान से माफी मांगी और कपुरावती के गोद भरने की भगवान जीवितवाहन से मिन्नत की। भगवान खुश रहने के वरदान देकर अंतर्धयान हो गए।
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