क्यों ना इस इस बार गांव चले -1

दोस्तों जब हम लोग बच्चे थे याद है दुर्गा पूजा के खत्म होते ही दीवाली की तैयारी में लग जाते थे। एक उमंग के साथ की दीवाली में क्या-क्या करना है।घरकुन्नाघरौंदाकैसा होगा, कितने महल का होगा और सजावट कैसे करनी है आजकल के जैसे थर्मोकोल का बना बनाया घर हमलोग नहीं बनाते थे।हम लोग तो मिट्टी का सुंदर घर जो बस घर ही नहीं सपनों का घर होता था।घर बनाते हुए यही सोचते थे कि बड़े होकर ऐसा ही घर बनायेंगे। उस घर में हम लोग अपना सपना भर देते थे। मां खिल बतासे से उसकी पूजा करती थी,हम लोग आधी रात तक उस घर को जोगते थे, कोई आकर खा ले हम लोग का बताशा। हम लोग का परिवार बहुत बड़ा है सारे भाई बहन‌ उस रात खुब मस्ती करते आधी रात पटाखा छोड़ते, लड़ते झगड़ते मजे करते। फिर दीवाली की सुबह मां शुरू हो जाती ये नहीं छुना, वहां नहीं जाना छठ तक तो हमारे हाथ धो धो के हमलोग के हाथ में काई लग जाते..😀😀 फिर जब मां गेहूं धोती हम लोग एक बड़ा सा डंडा लेकर कौवा उड़ाते थे। फिर छठ की सुबह मां पकवान बनाती हम सब मिलकर एक 5 7 5 का गड्ढा बनाते क्योंकि हमारे गांव में नदी नहीं थी। उसी को‌ बहुत सुंदर से सजाते थे।बैलुन बांध कर,रिबन चिपका कर और रंगोली बनाते समय तों लगता हुसैन साहब भी हमारे सामने ‌‌‌‌‌कुछ ना‌ है। शारदा सिन्हा जी का गाना बजते बजते छठ का समापन‌ हो जाता था। तब अपना अपना पकवान फल सब‌ एक साथ बैठ मजा कर खाते थे। कितना मज़ा करते थे। सालों हो गये सारे एक‌ साथ छुट्टियां नहीं मनाये हैं।कभी छुट्टी नहीं तो कभी बच्चों के स्कुल कभी ऑफिस का काम,क्यो ना इस सारे एक साथ हो और फिर वही घरोंदा, फिर वही मस्ती। जो हमारे बच्चे शायद शहर में कभी ना जी पायें,क्यो ना इस बार गांव चले अपना और बच्चों का बचपन जीनें... आगे कहानी जारी रहेगी....

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