आस्था का महापर्व छठ पूजा- जिसका नाम सुनते ही हमारे आंखों में एक चमक आ जाती है। आंखों के सामने वो मंजर आ जाता जब हम डाला लिए सर पर घाट पर जाते थे। वहां अपनी अपनी जगह पकड़ने पहले से बहुत लोग इकट्ठे रहते हमलोग भी सवेरे अपना जगह कब्जा करने चौकी बिछा कर रखते थे। आज शायद काम की व्यस्तता कहें या किस्मत की लाचारी घर जाना भी असंभव हो जाता।
घर जाते हैं तो बस 3-4 दिनों के लिए वहां भी मोबाइल पर ही लगे रहते। घाट पर जाना भी अब कहां होता या तो गांव के पोखरा खत्म हो गये या फिर नदी पानी में जाना अब डाला उठा के, जगह लूटना बचपना लगने लगा। पहले गेंहू, चावल सब छत पर सुखाया जाता था, हमलोग बचपन में एक बड़ा सा डंडा लेके कौवा उड़ाते रहते थे। घर में ही चक्की पर घर की औरतें छठ मैया का गीत गाते हुए गेंहू पीसती थी। अब शायद महिलाओं का स्वास्थ ऐसा रहा नहीं इसलिए मील पर पीसवाती है। लेकिन अभी भी छठ पर्व में बहुत आस्था होती है हम हिंदूओं की।
छठ चार दिन का महापर्व है। यह नहाय-खाय से शुरू होता है जिसमें अरवा चावल, चना दाल और कद्दु की सब्जी का महत्व है। दुसरे दिन खरना जिसमें एक शाम ही खाया जाता जो खीर खा कर खरना करते हैं। फिर शाम का अर्घ्य और चौथे दिन सुबह के अर्घय के साथ संपन्न होता है।
साल 2019 में छठ का नहाय-खाय 31 अक्टूबर को है, खरना 1 नवंबर को, पहला अर्घय 2 नवंबर और दुसरा 3 नवंबर को है। छठ तो मुख्यतः बिहार झारखंड और उत्तर प्रदेश में मनाया जाता है लेकिन अब मुंबई के बीच से अब विदेशों में भी मनाया जाने लगा। बिहारी जहां है छठ वहीं करने लगें।
यह सूर्य की उपासना का पर्व है। इसमें डूबते और उगते सूर्य की पूजा की जाती है। पानी में घंटों खड़े रह वर्ती भगवान सूर्य की पूजा करते हैं। बिहार के राजगीर के वड़गांव में सूर्य देव का मंदिर है, छठ के समय यहां काफी भीड़ रहती है। छठी मैया हर व्यक्ति की कामना पूर्ति करते हैं लोग पूरे मन से इनकी पूजा करते हैं। स्कीन संबंधित बिमारी छठ मैया के आशीर्वाद से खत्म हो जाती है।
छठ पर्व नहीं भावना है। यह अपने मिट्टी अपने गांव से जोड़ने का आस्था है। पुरे साल तो घर नहीं ही आ पाते कम से कम छठ पूजा में घर आ कर अपने परिवार, माता पिता के साथ कुछ समय बिताने का मौका मिलता। क्युं ना इस बार घर आएं फिर वही दिन लाएं, कुदाल ले घाट बनाए, उसको अपनी खुशियों के रंग से सजाएं। अपने उमंग का गुब्बारा फूला फिर वही घाट सजाएं। मां के हाथ का मीठा पकवान और बहुत सारा आशीर्वाद पाएं। चलो ना फिर वही बचपन जीने, बच्चों के साथ बच्चे बनने फिर गांव गले.........
दोस्तों कैसा लगा मेरा ये पोस्ट आप हमें कमेंट कर अवश्य बताएं। ये आस्था के प्रतीक छठ पर्व का पहला पार्ट है। कल आपको दूसरा पार्ट हम बताएंगे। आप हमें कमेंट और शेयर करें। सब्सक्राइब करें।
घर जाते हैं तो बस 3-4 दिनों के लिए वहां भी मोबाइल पर ही लगे रहते। घाट पर जाना भी अब कहां होता या तो गांव के पोखरा खत्म हो गये या फिर नदी पानी में जाना अब डाला उठा के, जगह लूटना बचपना लगने लगा। पहले गेंहू, चावल सब छत पर सुखाया जाता था, हमलोग बचपन में एक बड़ा सा डंडा लेके कौवा उड़ाते रहते थे। घर में ही चक्की पर घर की औरतें छठ मैया का गीत गाते हुए गेंहू पीसती थी। अब शायद महिलाओं का स्वास्थ ऐसा रहा नहीं इसलिए मील पर पीसवाती है। लेकिन अभी भी छठ पर्व में बहुत आस्था होती है हम हिंदूओं की।
छठ चार दिन का महापर्व है। यह नहाय-खाय से शुरू होता है जिसमें अरवा चावल, चना दाल और कद्दु की सब्जी का महत्व है। दुसरे दिन खरना जिसमें एक शाम ही खाया जाता जो खीर खा कर खरना करते हैं। फिर शाम का अर्घ्य और चौथे दिन सुबह के अर्घय के साथ संपन्न होता है।
साल 2019 में छठ का नहाय-खाय 31 अक्टूबर को है, खरना 1 नवंबर को, पहला अर्घय 2 नवंबर और दुसरा 3 नवंबर को है। छठ तो मुख्यतः बिहार झारखंड और उत्तर प्रदेश में मनाया जाता है लेकिन अब मुंबई के बीच से अब विदेशों में भी मनाया जाने लगा। बिहारी जहां है छठ वहीं करने लगें।
यह सूर्य की उपासना का पर्व है। इसमें डूबते और उगते सूर्य की पूजा की जाती है। पानी में घंटों खड़े रह वर्ती भगवान सूर्य की पूजा करते हैं। बिहार के राजगीर के वड़गांव में सूर्य देव का मंदिर है, छठ के समय यहां काफी भीड़ रहती है। छठी मैया हर व्यक्ति की कामना पूर्ति करते हैं लोग पूरे मन से इनकी पूजा करते हैं। स्कीन संबंधित बिमारी छठ मैया के आशीर्वाद से खत्म हो जाती है।
छठ पर्व नहीं भावना है। यह अपने मिट्टी अपने गांव से जोड़ने का आस्था है। पुरे साल तो घर नहीं ही आ पाते कम से कम छठ पूजा में घर आ कर अपने परिवार, माता पिता के साथ कुछ समय बिताने का मौका मिलता। क्युं ना इस बार घर आएं फिर वही दिन लाएं, कुदाल ले घाट बनाए, उसको अपनी खुशियों के रंग से सजाएं। अपने उमंग का गुब्बारा फूला फिर वही घाट सजाएं। मां के हाथ का मीठा पकवान और बहुत सारा आशीर्वाद पाएं। चलो ना फिर वही बचपन जीने, बच्चों के साथ बच्चे बनने फिर गांव गले.........
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