मखान सब लोग खाये है लेकिन कभी सोचे कि ये आता कहां से है, बनता कैसे है, कहां होता है।आज इसके बारे में पुरी जानकारी दे रहे हैं। मखान सुखे मेवे की श्रेणी में आता है। इसमें प्रोटीन, एंटीऑक्सीडेंट, विटामिन, फास्फोरस, मिनरल्स, कैल्शियम, न्यूट्रीशन पाये जाते हैं। यह हमारे शरीर के लिए बहुत जरूरी है। मखाने खाने से मसल बनता है और यह शरीर को फिट रखता है।
भारत में खर्च के अधिकांश भाग का 80% भाग बिहार के मिथिलांचल में उगाया जाता है। मिथिलांचल के लोगों की मुख्य खेती मखान की ही होती है। यह पानी में उगाया जाता है।गांव देहात में डोभा या छिछला पानी कहते हैं वहीं इसे उगाया जाता है।
मखाना उगाने के लिए सबसे पहले दिसंबर से जनवरी के बीच पानी में इसके बीज को बोया जाता है। खेतों में 8-10 पानी हो तब भी बो देते हैं। अप्रैल तक इसमें फूल आने लगते हैं। जून-जूलाई तक ये फूल पानी की सतह पर तैरता रहता है।और फिर नीचे आ जाता है। इसके फल कांटे दार होते हैं। 1 से 2 महीने में ये कांटे गल जाते हैं। सितंबर अक्टूबर तक पानी के निचले हिस्से से चुन कर एक जगह जमा करते हैं।
इसके बाद तालाब से निकालते समय इसके पत्तों, तनों और जड़ो में हजारों कांटे होते हैं। ये कांटे तोड़ते वक्त बहुत चुभते हैं पुरा हाथ जख्मी हो जाता है। फिर इस सबसे बीज अलग कर धूप में सुखाया जाता है। फिर तैयार हो गया मखाना...
इसके बीजों को बड़ी- बड़ी कड़ाही में सेका जाता है। फिर उन्हें टेम्परिंग के लिए 45-72 घंटों तक टोकड़ियों में रखा जाता है। इससे इसका कड़ा छिलका कुछ ढीला हो जाता है। बीजों को लावा में बदलना बहुत मुश्किल का काम है। कड़ाही में भुन रहे बीजों को ठोस लकड़ी पर रखकर लकड़ी के हथौड़े से पीटा जाता है।
इस तरह गर्म बीजों का कड़क खोल तेजी से फटकर लावा बन बाहर आ जाता है। बीज के अंदर बहुत ज्यादा भाप बनने के कारण ऐसा होता है।
मखाना उगाने में किसी तरह के रसायन का प्रयोग नहीं किया जाता है इसलिए इसे आर्गेनिक फूड भी खहतक हैं। क्योंकि इसकी पत्तियां सड़-गल के तालाब में ही रहती है तो वो अपना खाद खुद तैयार कर लेती है।
मखाने को मिथिलांचल लोग अपने शादी के एक रस्म " कोजगर" में इसके बने पकवान खाते हैं। अपने दामादों को ढेर सारा मखान देते हैं। मखाना घी में भूनकर नमक के साथ खाने पर भी फायदा होता है।
भारत में खर्च के अधिकांश भाग का 80% भाग बिहार के मिथिलांचल में उगाया जाता है। मिथिलांचल के लोगों की मुख्य खेती मखान की ही होती है। यह पानी में उगाया जाता है।गांव देहात में डोभा या छिछला पानी कहते हैं वहीं इसे उगाया जाता है।
मखाना उगाने के लिए सबसे पहले दिसंबर से जनवरी के बीच पानी में इसके बीज को बोया जाता है। खेतों में 8-10 पानी हो तब भी बो देते हैं। अप्रैल तक इसमें फूल आने लगते हैं। जून-जूलाई तक ये फूल पानी की सतह पर तैरता रहता है।और फिर नीचे आ जाता है। इसके फल कांटे दार होते हैं। 1 से 2 महीने में ये कांटे गल जाते हैं। सितंबर अक्टूबर तक पानी के निचले हिस्से से चुन कर एक जगह जमा करते हैं।
इसके बाद तालाब से निकालते समय इसके पत्तों, तनों और जड़ो में हजारों कांटे होते हैं। ये कांटे तोड़ते वक्त बहुत चुभते हैं पुरा हाथ जख्मी हो जाता है। फिर इस सबसे बीज अलग कर धूप में सुखाया जाता है। फिर तैयार हो गया मखाना...
इसके बीजों को बड़ी- बड़ी कड़ाही में सेका जाता है। फिर उन्हें टेम्परिंग के लिए 45-72 घंटों तक टोकड़ियों में रखा जाता है। इससे इसका कड़ा छिलका कुछ ढीला हो जाता है। बीजों को लावा में बदलना बहुत मुश्किल का काम है। कड़ाही में भुन रहे बीजों को ठोस लकड़ी पर रखकर लकड़ी के हथौड़े से पीटा जाता है।
इस तरह गर्म बीजों का कड़क खोल तेजी से फटकर लावा बन बाहर आ जाता है। बीज के अंदर बहुत ज्यादा भाप बनने के कारण ऐसा होता है।
मखाना उगाने में किसी तरह के रसायन का प्रयोग नहीं किया जाता है इसलिए इसे आर्गेनिक फूड भी खहतक हैं। क्योंकि इसकी पत्तियां सड़-गल के तालाब में ही रहती है तो वो अपना खाद खुद तैयार कर लेती है।
मखाने को मिथिलांचल लोग अपने शादी के एक रस्म " कोजगर" में इसके बने पकवान खाते हैं। अपने दामादों को ढेर सारा मखान देते हैं। मखाना घी में भूनकर नमक के साथ खाने पर भी फायदा होता है।
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