गोकुल के गलियों की होली

  राधा - कृष्ण जहां प्रेम के प्रतिक है। उनके द्वारा खेली गई होली जो रोम-रोम में प्रेम बसा देता है। गोकुल के गलियों में जहां कृष्ण ने अपने सखा के‌ साथ होली खेली थी,आज भी वहां होली उसी अंदाज में खेलते हैं। जहां प्रेम ही प्रेम बसा हो वहां की‌‌ होली ‌‌‌की बात तो निराली ही होगी ना।
 
     "  होली खेल रहे नंदलाल
          गोकुल की कुंज गलिन में,
            मेरे घर मारी पिचकारी
            मेरी भीगी रेशम साड़ी
           अरे मुख पर मलो गुलाल
            गोकुल की कुंज गलिन में"



      राधा कृष्ण की‌ होली देखने ‌‌‌देवता ‌‌‌भी धरती पर आ जाते थे। यहां की होली का एक अपना अलग‌ अंदाज है। जैसे बृज की लट्ट मार होली विश्व प्रसिद्ध है वही गोकुल में छड़ी मार‌ होली का महत्व है। यहां छड़ी मार‌ होली‌ देखने और खेलने के लिए लोग आते हैं।

    गोकुल के मंदिर से कृष्ण का डोला गाजे-बाजे बैंड के साथ निकलता है । मुरलीधर घाट पर उनका बोला लाया जाता है।पुर रास्ते टेसु के फुल उनपर बरसाये जाते हैं।रंग गुलाल उड़ाते हुए सखियां यहां आती है। इनको हुरियारे और हुरियारिन कहा जाता है।

            " मत मारे दृगन की चोट रसिया
               होली में मेरे लग जाएगी
‌‌              तेरी मेरी कट्टी हो जाएगी "

     महिलाएं सोलहों श्रृंगार कर शामिल होती है इसमें छड़ी मार‌ होली‌ खेलने के लिए। कहा जाता है गोकुल जहां बचपन में कान्हा को सताने के लिए छड़ी से खेलती थी। इसलिए आज भी फुलों की छड़ी उन पर बरसाई जाती हैं और कान्हा बने पुरुष डंडे से अपना बचाव करते हैं।

   यहां द्वादशी से धुरखेल तक होली चलता है। द्वादशी के दिन नंद भवन में होली खेलते हैं। बाकी दिन कृष्ण मंदिर में होली का उत्सव मनाते हैं।

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